30 जून / इतिहास स्मृति – संथाल परगना में 20 हजार वीरों ने दी प्राणाहुति

संथालों को आत्मसमर्पण जैसे किसी शब्द का ज्ञान नहीं था. जब तक उनका ड्रम बजता रहता था, वे लड़ते रहते थे. जब तक उनमें से एक भी शेष रहा, वह लड़ता रहा. ब्रिटिश सेना में एक भी ऐसा सैनिक नहीं था, जो इस साहसपूर्ण बलिदान पर शर्मिन्दा न हुआ हो.’’
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स्वाधीनता संग्राम में वर्ष 1857 एक मील का पत्थर है, लेकिन वास्तव में अंग्रेजों के भारत आने के कुछ समय बाद से ही विद्रोह का क्रम शुरू हो गया था. कुछ हिस्सों में रवैये से परेशान होकर विरोध करना शुरू कर दिया था. वर्तमान झारखंड के संथाल परगना क्षेत्र में हुआ ‘संथाल हूल’ या ‘संथाल विद्रोह’ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है. संथाल परगना उपजाऊ भूमि वाला वनवासी क्षेत्र है.

वनवासी बंधु स्वभाव से धर्म और प्रकृति के प्रेमी तथा सरल होते हैं. इसका जमींदारों ने सदा लाभ उठाया है. कीमती वन उपज लेकर उसी के भार के बराबर नमक जैसी सस्ती चीज देना वहां आम बात थी. अंग्रेजों के आने के बाद ये जमींदार उनके साथ मिल गये और संथालों पर दोहरी मार पड़ने लगी. घरेलू आवश्यकता हेतु लिये गये कर्ज पर कई बार साहूकार 50 से 500 प्रतिशत तक ब्याज ले लेते थे.

वर्ष 1789 में संथाल क्षेत्र के एक वीर बाबा तिलका मांझी ने अपने साथियों के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध कई सप्ताह तक सशस्त्र संघर्ष किया था. उन्हें पकड़ कर अंग्रेजों ने घोड़े की पूंछ से बांधकर सड़क पर घसीटा और फिर उनकी खून से लथपथ देह को भागलपुर में पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी. 30 जून, 1855 को तिलका मांझी की परम्परा के अनुगामी दो सगे भाई सिद्धू और कान्हू मुर्मु के नेतृत्व में 10,000 संथालों ने अंग्रेजों के शोषण के विरुद्ध विद्रोह कर दिया. इनका जन्म भोगनाडीह गांव में हुआ था. उन्होंने एक सभा में ‘संथाल राज्य’ की घोषणा कर अपने प्रतिनिधि द्वारा भागलपुर में अंग्रेज कमिश्नर को सूचना भेज दी कि वे 15 दिन में अपना बोरिया-बिस्तर समेट लें. इससे बौखला कर शासन ने उन्हें गिरफ्तार करने का प्रयास किया, पर ग्रामीणों के विरोध के कारण वे असफल रहे. अब दोनों भाइयों ने सीधे संघर्ष का निश्चय कर लिया. इसके लिए शालवृक्ष की टहनी घुमाकर क्रांति का संदेश घर-घर पहुंचा दिया गया. परिणाम यह हुआ कि उस क्षेत्र से अंग्रेज शासन लगभग समाप्त ही हो गया. इससे उत्साहित होकर एक दिन 50,000 संथाल वीर अंग्रेजों को मारते-काटते कोलकाता की ओर चल दिये.

यह देखकर शासन ने मेजर बूरी के नेतृत्व में सेना भेज दी. पांच घंटे के खूनी संघर्ष में शासन की पराजय हुई और संथाल वीरों ने पकूर किले पर कब्जा कर लिया. सैकड़ों अंग्रेज सैनिक मारे गये. जिससे कम्पनी के अधिकारी घबरा गये. अतः पूरे क्षेत्र में ‘मार्शल लॉ’ लगाकर उसे सेना के हवाले कर दिया गया. अब अंग्रेज सेना को खुली छूट मिल गयी. अंग्रेज सेना के पास आधुनिक शस्त्रास्त्र थे, जबकि संथाल वीरों के पास तीर-कमान जैसे परम्परागत हथियार. अतः बाजी पलट गयी और चारों ओर खून की नदी बहने लगी.

इस युद्ध में लगभग 20,000 वनवासी वीरों ने प्राणाहुति दी. प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने युद्ध के बारे में अपनी पुस्तक ‘एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’ में लिखा है, ‘‘संथालों को आत्मसमर्पण जैसे किसी शब्द का ज्ञान नहीं था. जब तक उनका ड्रम बजता रहता था, वे लड़ते रहते थे. जब तक उनमें से एक भी शेष रहा, वह लड़ता रहा. ब्रिटिश सेना में एक भी ऐसा सैनिक नहीं था, जो इस साहसपूर्ण बलिदान पर शर्मिन्दा न हुआ हो.’’

इस संघर्ष में सिद्धू और कान्हू के साथ उनके अन्य दो भाई चांद और भैरव भी मारे गये. इस घटना की याद में 30 जून को प्रतिवर्ष ‘हूल दिवस’ मनाया जाता है. कार्ल मार्क्स ने अपनी पुस्तक ‘नोट्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री’ में घटना को जनक्रांति कहा है. भारत सरकार ने भी वीर सिद्धू और कान्हू की स्मृति को चिरस्थायी बनाये रखने के लिए एक डाक टिकट जारी किया है.

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